Monday 24 July 2017

कफन में अभिव्यक्त दलित संवेदना

‘कफ़न’ में  अभिव्यक्त  दलित संवेदना
प्रा. देवेंद्र नारायण बोंडे
डॉ.अण्णासाहेब जी.डी.बेंडाळे महिला
महाविद्यालय, जलगाँव 


प्रेमचंद हिंदी साहित्य में युग पुरुष के रुप में अवतरित हुए| उन्होंने अपने जीवन दर्शन से समसामायिक समाज के साथ भावी पीढ़ियों के लिए भी स्फूर्ति एवं प्रेरणा प्रदान की है| अपने इर्द-गिर्द घटित घटनाएँ उन्हें बेचैन करती थी| एक संवेदनशील लेखक से रहा नहीं गया और उन्होंने अपने विचारों को कलम के जरिए अपने कथा साहित्य में अभिव्यक्त किया| अनेक कहानियों को प्रस्तुत किया उनमें से ही एक कहानी है ‘कफन’|

कफन हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक कहानी है| कफन एक बहुस्तरीय कहानी है, जिसमें घीसू र माधव की बेबसी, अमानवीयता और निकम्मेपन के बहाने सामंती औपनिवेशिक गठजोड़ के दौर की सामाजिक, आर्थिक संरचना और उसके अमानवीय नृशंस रूप का पता चलता है| कफन एक प्रतीक की तरह उभरता है जो कर्मकांड की व्यवस्था और सामंती औपनिवेशिक गठजोड़ के लिए कफ़न तैयार करता है|

प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी को लेकर पाठकों में बहुत मतभेद दिखाई देते हैं| कुछ लोग इसे दलित कहानी मानते हैं तो कुछ लोग इसे दलित विरोधी कहानी मानते हैं| इन मतभेदों में भावुकता और आक्रोश के कारण तर्क एवं विश्लेषण में कमी दिखाई देती है| वास्तव में प्रेमचंद को हिंदू समाज व्यवस्था के प्रति किसी प्रकार का भ्रम नहीं था वह अपने विवेक और पैनी दृष्टि से समाज के समस्त कुकर्म और पाखंड को सबके सामने लाना चाहते थे| समाज व्यवस्था का यह कुरूप चेहरा उजागर करना चाहते थे|

कफन घीसू और माधव की कहानी है| माधव की पत्नी बुधिया भीतर प्रसव वेदना से छटपटा रही है| और बाहर घीसू और माधव अलाव के पास बैठे भुने हुए आलू खाने में लगे हैं| उधर बुधिया असहाय पीड़ा से चीख रही है| इधर बाप बेटा ठाकुर के यहां की दावत याद कर रहे हैं| इधर वे आलू खाकर अलाव के निकट ही सो जाते हैं| उधर छटपटाती हुई बुधिया की मृत्यु हो जाती है| सुबह बुधिया की मौत पर दोनों रोना पीटना शुरु करते हैं| कुनबे के लोग जुटते हैं, अंतिम संस्कार की तैयारी होने लगती है| घीसू और माधव कफन आदि की व्यवस्था के लिए निकलते हैं| जमीदार से दो रुपए मिलने के बाद घीसू गांव भर घूम कर पाँच रुपए से कुछ ज्यादा रकम जुटा लेते हैं| इधर कुनबे के लोग बाकी इंतजाम में लगे हैं उधर बाप-बेटा कफ़न के लिए शहर जाते हैं| दो-चार जगह कफन देखने के बाद दोनों शराब की दुकान पर पहुंचते हैं जी भर कर शराब पीते हैं, दावत उड़ाते हैं, बचा हुआ खाना भिखारी को दान देते हैं और फिर नशे में मस्त होकर निर्गुण गाते हैं और निढाल होकर गिर पड़ते हैं|

घीसू और माधव कहानी के दलित पात्र है| दोनों बाप-बेटे चमार जाति के हैं| किंतु दोनों स्वभाव से कामचोर, आलसी एवं अकर्मण्य है, जो दलित पात्रों की विशेषता में अपवाद रूप माना जा सकता है| इन अवगुणों के कारण ही घीसू और माधव गाँव में बदनाम है| आलसी और आरामतलबी होने के कारण ही दोनों बाप-बेटे अपने पेट की भूख शांत करने असमर्थ है| इनके चरित्र में प्रेम, दया, करुणा, आत्मसम्मान आदि मानवीय गुण मौजूद नहीं है| इन दोनों को अपनी बहु-बीबी की चिंता नहीं थी| कहानी के प्रारंभ में ही प्रेमचंद ने घीसू और माधव की हदयहीन संवेदना को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए है और अंदर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना से पछाड़ खा रही थी| रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते|”1 इस प्रकार की दिल हिला देनेवाली आवाज से भी इनका दिल नहीं पिघलता है और मजे से दोनों अलाव के सामने बैठ कर गरम-गरम आलुओं को निगलते है| क्योंकि बुधिया से बढ़कर उनके लिए आलू का महत्व अधिक है| बुधिया का पति माधव भी झोपड़ी में जाकर बुधिया को देखना नहीं चाहता है, क्योंकि उसे इस बात का डर है कि अगर वह झोपडी में गया तो इधर उसका बाप उससे अधिक आलू चटकर जाएगा|

कहानी पढ़ने पर सबसे पहले जिस पर ध्यान जाता है वह है घीसू और माधव की अमानवीयता इसी आधार पर कुछ आलोचकों का आरोप है कि घीसू और माधव जैसे संवेदनहीन पात्र यथार्थ में नहीं हो सकते इसलिए प्रेमचंदने अपनी सवर्ण दृष्टि के नाते जानबूझकर दलितों को अपमानित करने के लिए ऐसे बेग़ैरत पात्रों की सृष्टि की है इस दृष्टि से यही कहा जा सकता है कि ‘जाकी रही भावना जैसी हरि मूरत देखी तिन तैसी’ वास्तव में लेखक का उद्देश्य किसी को अपमानित करना कदापि नहीं था बल्कि प्रेमचंद यह दिखाना चाहते हैं कि घीसू और माधव की अवस्था उस अमानवीय समाज व्यवस्था के कारण निर्माण हुई है जिसे बदलना अत्यंत आवश्यक है| घीसू और माधव जाति के चमार है, भूमिहिन है, मजदूर हैं यह देख रहे हैं कि जी तोड़ मेहनत करने वाले भी ढंग से नहीं जी पा रहे हैं, उनके लिए पेट भरना भी मुहाल है| इसलिए वे निकम्मे और कामचोर है| निकम्मापन और कामचोरी उनका चरित्र नहीं है शोषण से बचने का उपाय है| जाहिर है उस समय है दलित आंदोलन नहीं था| असंगठित मजदूरों भूमिहीन किसानों के शोषण के खिलाफ संघर्ष का कोई सक्षम मंच नहीं था| ऐसे में घीसू और माधव शोषण से बचने का उपाय निकालते हैं| असंगठित होने के कारण दलित वर्ग प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं कर पाता था, पर उन के भीतर की विद्रोह चेतना कामचोरी के रूप में, निकम्मेपन के रूप में प्रकट होती है|

घीसू और माधव निश्चित रुप से चमार है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी खूबियाँ-खराबियाँ सभी दलितों की खूबियाँ-खराबियाँ है| घीसू और माधव का चरित्र दलितों को बदनाम करने के लिए नहीं गढ़ा गया है और ना ही सभी दलितों के विषय में इस कहानी में कोई टिप्पणी है| कहानी में स्वयंम बुधिया दलित ही है और उसका चरित्र घीसू और माधव से भिन्न है| बुधिया के प्रति लेखक की संवेदनशीलता देखने लायक है| “जब से यह औरत आई थी उसने ने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी पिसाई करके यह घास छीलकर वह सेर भर आटे का इंतजाम कर लेती थी और इन दोनों बेगैरतों दोखज भरती रहती थी| जब से वह आई थी ये दोनों और भी आलसी और आराम तलब तो गए थे वही औरत आज प्रसव वेदना से मर रही थी|”2

बुधिया की प्रसव पीड़ा के दौरान घीसू और माधव आलू निकाल-निकाल कर जलते-जलते खाने लगे और बुधिया दर्द से छटपटाती रही| इस प्रसंग में प्रेमचंद घीसू और माधव की असंवेदनशीलता की घनघोर भर्त्सना करते हैं| लेकिन इन दोनों की जिम्मेदारी वे दलित समुदाय पर नहीं बल्कि सामाजिक संरचना पर डालते हैं| प्रेमचंद एक मनोवैज्ञानिक तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि भूख वह अहर्निश जलने वाली ऐसी विकराल भट्टी है जो अन्न के अभाव में मनुष्य की संवेदना के साथ-साथ उसकी मनुष्यता को भी लील जाती है| यहां दोनों का आलू खाना और बुधिया का दर्द से छटपटाना एक दृश्य भर रही है| एक रूपक भी है| अपने श्रम से समाज का पेट भरने वाला हिस्सा दर्द से इस कदर के छटपटा रहा है और बैठकबाजों की मंडली के सदस्य उससे बेपरवाह माल उड़ा रहे हैं|

भूख मनुष्य की बुनियादी जरुरत होती है भरपेट भोजन तो घीसू की यादों में ही रह गया है| वह कहता है “वह भोज नहीं भूलता| तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला| लड़कीवालों ने सब को भरपेट पूरियाँ खिलाई थी, सब को! छोटे-बड़े सबने पूरियाँ खाई और असली घी की| चटनी रायता तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, मिठाई| अब क्या बताऊँ की इस भोज में क्या स्वाद मिला! कोई रोक-टोक नहीं थी| जो चीज माँगों और जितना चाहो खाओं| लोगों ने ऐसा खाया, किसी ने पानी न पिया गया|”3 जिंदगी में पहली बार उसको ऐसा भोजन मिला था| माधव बेचारा सुनकर ही आनंद लेता है| उसे तो यह भी नसीब नहीं हुआ| उम्र अधिक होने के कारण घीसू ने भूख की विकरालता माधव की अपेक्षा अधिक झेली है इसलिए माधव की अपेक्षा वह अधिक ढीठ, निर्लज्ज, और निर्द्वंद्व हुआ है| अनुभव ने उसे बताया है कि जन्म और मृत्यु जैसी भौतिक, सामजिक अनिवार्यताएँ अपने आप विधि-विधान से संपन्न हो जाती है इसलिए वह सिर्फ अपनी भूख पर केंद्रित है| समाज का कोई सरोकार नहीं| भरपेट  भोजन ही उनकी सबसे अधिक सुखद स्मृति है| यही उनका स्वप्न भी है| बुधिया की कफ़न की कमाई ने उनके सभी अरमान पूरे कर दिए- शराब की बोतल और भरपेट दावत|

“घीसू और माधव की अकर्मण्यता का कारण आनुवांशिक नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था है| इस व्यवस्था में अकर्मण्यता और भूख में कोई अंतर नहीं है| उन्हीं के गाँव के जमीदार है, मालिक है, जिनके पास हजारो की संपत्ति है| ये भी समाज के किसी उपयोगी कार्य में हाथ नहीं बंटाते और घीसू और माधव की अकर्मण्यता भी किसी दूसरों को हानि नहीं पहुँचाती| लेकिन दूसरी और जमीदारों की अकर्मण्यता को जुटाने के लिए कोटि-कोटि किसानों को अथक परिश्रम करना पड़ता है| यह समाज व्यवस्था ही कुछ ऐसी है, जिस मे मेहनत करनेवाले भूखे रहते है और कामचोर आनंद करते है| श्रम किसान करते है और उपज पर अधिकार जमीदारों का होता है जिस समाज में श्रम का कोई पुरस्कार नहीं, जहाँ श्रमिक अपना पेट भी नहीं भर पाते वहाँ कौन मेहनत करना चाहेगा? इस समाज सारे गोरखधंधे कामचोरी को ही प्रोत्साहन देते है और इसलिए घीसू-माधव का अकर्मण्य हो जाना  कोई आश्चर्य की बात नहीं|”4

“शोषण का बीभत्स रूप और उसका अमानुषिक परिणाम घीसू और माधव में प्रतिबिंबित होता है| उस व्यवस्था को एक दिन भी जीने का अधिकार नहीं, जो मनुष्य को मनुष्यता से गिरा दे| घीसू और माधव की जीवन कहानी में प्रेमचंद यही दिखाना चाहते है और यही दिखाने के लिए उन को इस तरह के पात्रों का चित्रण करना पड़ा जो एक और वर्ग-विभाजित समाज की उपज है और दूसरी और घीसू और माधव के सभी अवगुणों से दूषित उन लुटेरों के प्रतिक जो सभी प्रकार के साधनों से संपन्न है| ‘कफ़न’ कहानी के घीसू और माधव न तो हमारे क्रोध के पात्र है न घृणा के| इन पर तो हमें दया आती है कि शोषण ने इनको कितना बीभत्स बना दिया है| पर समाज के घीसू और माधव (बड़े-बड़ेजमीदार और सेठ साहूकार आदि) जो पहले दर्जे के अकर्मण्य और आलसी होने पर भी सभी प्रकार के साधनों से युक्त है- उनके प्रति क्रोध, घृणा और प्रतिहिंसा की भावना स्वयम भभक उठती है| ये दोहरे नियम अब ज्यादा दिन तक चल नहीं सकते| यह व्यवस्था इस हद तक सड गई है कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उसे मनुष्यता का नाश करना पड़ता है| परंतु फिर भी इस संघर्ष में व्यवस्था को ही मिटना पड़ता है क्योंकि मनुष्यता कभी भी नष्ट नहीं हो सकती और जब कभी भी अनुरूप व्यवस्था का सहयोग पाकर अपनी संपूर्णता के साथ वह निखरेगी तब सभी घीसू- माधव अपने पाशविक धरातल से उपर उठकर मनुष्यता के यथार्थ रूप को पा लेंगे जो प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कुछ समय के लिए उनसे बिछुड़ गया था| उनके अंतर में प्रेम, दया, करुणा, ममता, त्याग आदि सभी भावनाएँ एक साथ धडल्ले के साथ प्रवेश कर जायेगी|”5

प्रेमचंद की इस कहानी को लगभग सत्तर साल हो गए है परंतु फिर भी यह प्रासंगिक है यह हमें सिख देती है की मनुष्य समाजप्रिय प्राणी होता है| अपने-आपसे, आत्मीयों से और अपने समाज से विछिन्न मनुष्य संवेदनहिन बन जाता है सारी मर्यादाएं, मूल्यदर्शन और बहसें उसके लिए स्वार्थ साधन का जरिया भर होती है| यह कहानी भारतीय समाज के लिए एक नैतिक चेतावनी है कि निर्मम सामंती व्यवस्था मनुष्य को कैसे अमानवीय बना देती है इसमें एक अंतर्निहित संदेश है कि ऐसी व्यवस्था को बदल देना चाहिए|

संदर्भ ग्रंथ –
1)       प्रेमचंद रचना संचयन- निर्मल वर्मा& कमलकिशोर गोयनका –   पृ.219
2)       वही,                                                 पृ.220
3)       वही,                                                 पृ.221
4)       प्रेमचंद से पात्र: सं. कमलकोठारी                                पृ.219

5)       वही,                                                                            पृ.220-221